Pages

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

नदी: एक दिन मिलकर रहेगी-गीतेश

सभी नदियां नहीं मिलती समंदर में
कुछ बिला जाती हैं रेत में
और कुछ समा जाती हैं बड़ी नदियों में ।
कुछ तो बँट जाती  हैं कई-कई धाराओं में |
पर कुछ ऐसी भी होती हैं
जो
खो जाती हैं
या यूं कहिए की खोई हुई सी लगती हैं
जबकि सच में वो खोई नहीं हैं
वो तलाश रही हैं अपने लिए अपना ही रास्ता ,
दिखती नहीं पर हैं कहीं गहराई में
ऊपर-ऊपर से कोई हलचल नहीं
पर भीतर ही भीतर
उबलती हैं ।
दिखेंगी एक दिन जरूर
और मिलकर रहेंगी समंदर में
और समंदर को भी नदी कर देंगी । 

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

माँ- १ :


अब नहीं होते आँगनों में तुलसी के बिरवे 
कि नथैया के पिड़ोर से लीप कर 
माँ लोटा भर जल से उड़ेल दे पूरा का पूरा समंदर,
गो कि माँ ने नहीं देखा कभी समंदर 
पर उसकी पूजा प्रार्थना में हमेशा ही आता है सात समंदर
कि उसे लगता है कि बेटा सात समंदर पार है 
तो रहे 
और रहे सही सलामत |
अब तो आँगनों में कैक्टस होते हैं 
जिनमें कांटे खिलते हैं, फूल नहीं, न ही खुशबू कोई 
और माँ अब नहीं होती आँगनों में,
होती है वह ओसारे में, तपते के पास गठरी बनी |
धरती के आखिरी कोने में (अगर कहीं है तो)
जहाँ खूब गहरा नीला आसमान मिलता है 
समंदर के नीले गहरे पानी से 
वहीं कहीं कोने में 
डूबता, सिमटता सूरज भी जानता है 
कि अब घरों में आँगन नहीं होते 
और माँ भी |
अब शायद घर भी नहीं रहेंगे |

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

उनका डर-गोरख


वे डरते हैं

किस चीज से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत


गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद?


वे डरते हैं


कि एक दिन


निहत्थे और गरीब लोग


उनसे डरना


बंद कर देंगे !


रविवार, 14 अप्रैल 2013

नागार्जुन


पाँच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूंखार
गोली खाकर एक मर गया,बाकी रह गये चार

चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश-निकाला मिला एक को, बाकी रह गये तीन

तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गये वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाकी बच गये दो

दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया है एक गद्दी से, बाकी बच गया एक

एक पूत भारतमाता का, कन्धे पर है झन्डा
पुलिस पकड कर जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा

अवतार सिंह संधू-पाश


प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गूंज जाना -
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा
जिन्हें जिन्दगी ने बनिए बना दिया

जिस्म का रिश्ता समझ सकना,
खुशी और नफरत में कभी भी लकीर न खींचना,
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फिदा होना,
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना,
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूं

तुम भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों के भीतर पालकर जवान किया
मेरी नज़रों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक्शों की धार बांधने में
कि मेरे चुंबनों ने कितना खूबसूरत बना दिया तुम्हारा चेहरा
कि मेरे आलिंगनों ने
तुम्हारा मोम-जैसा शरीर कैसे सांचें में ढाला

तुम यह सभी कुछ भूल जाना मेरी दोस्त
सिवाय इसके,
कि मुझे जीने की बहुत लालसा थी
कि मैं गले तक जिन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे हिस्से का जी लेना, मेरी दोस्त
मेरे भी हिस्से का जी लेना !

साहिर लुधियानवी


"ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मशरिक में हो कि मग़रिब में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर ....!
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे- तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है ....!
टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है ........!
इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है...."

दूसरा बनवास/कैफी आजमी




राम बनवास से लौटकर जब घर में आए
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए
रक्से-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसम्बर को सिरीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आए।

जगमगाते थे जहां राम के कदमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफरत के उसी राहगुजर में आए।

धर्म क्या उनका है क्या जात है यह जानता कौन
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा यार लोग जो घर में आए।

शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा खंजर
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता जख्म जो सर में आए।

पांव सरयू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि नजर आए वहां खून के गहरे धब्बे
पांव धोए बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फिजां आई नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे।

बिस्मिल की एक कविता


-----------"राम प्रसाद बिस्मिल" बेहतरीन कवि, शायर भी थे उनकी अंतिम रचना जो फ़ासी से कुछ समय पहले लिखी थी.  यहाँ आप लोगों के साथ साझा कर रहा हूँ.

मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या !
दिल की बर्वादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या !


मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल ,
उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या !


ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में ,
फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या !

काश! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते ,
यूँ सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या !

आख़िरी शब दीद के काबिल थी 'बिस्मिल' की तड़प ,
सुब्ह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या !

बुधवार, 20 मार्च 2013

सच कहना कन्हाई


सच कहना कन्हाई
कैसा लगता तुमको
जो कभी गोपियाँ तुम्हारा दूध, दही, मक्खन
चुराकर खातीं और बचने पे बिखरा जातीं तुम्हारे ही आंगन में
जब लगा रहे होते तुम कालिंदी में डुबकियां
कदंब डाल पे तुम्हारे कपड़े लिए
मुस्कराती, इठलाती छेड़ती तुम्हें
सच कहना कन्हाई
कैसा लगता तुम्हें
जो राधा के प्रिय होते
सोलह हज़ार गोप
भले ही वह हमेशा तुमसे कहती
तुम्ही उसको सबसे प्रिय हो
हृदय के सबसे नजदीक |


सोमवार, 18 मार्च 2013

सुरक्षा ?

खबर आयी कि उसने सुसाइड कर लिया | खबर के कई सारे रूप और कई सारे संस्करण थे | अपने ही घर में वह जलकर मरी थी, या जलाकर मार दी गयी थी | वह महज़ चौदह बरस की थी, आठवीं कक्षा की छात्रा | ऐसे तो वह बहुत हंसमुख थी, होनहार भी पर जब भी एक दो दिन की छुट्टियों के बाद विद्यालय खुलता तो वह थोड़ी मायूस सी रहती | वह हमेशा टीचर्स से कहती कि यह छुट्टी क्यों होती है ? उसे घर में अच्छा नहीं लगता |
उसके पिता जब भी विद्यालय आते, उनकी एक ही शिकायत रहती | इसको तो यहीं अच्छा लगता है| इसका वश चले तो स्कूल में ही रहे, घर जाए ही नहीं | कई बार उन्होंने क्लास टीचर से रहस्यमय ढंग से  यह भी शिकायत की थी कि उनकी बेटी किसी से 'फंसी' हुयी है | कई बार तो वे स्कूल आते भी नहीं थे. गेट पे ही खड़े रहते घंटों तक, जब भी वह खेल के मैदान में होती या यूँ ही किसी काम से क्लास के बाहर होती उसे घूरा करते | और वह सहम कर क्लास में लौट आती और फिर पूरा दिन मायूस |
वह कहती कि उसे घर में अच्छा नहीं लगता और उसके पिता कहते कि इसे तो स्कूल में ही रहना अच्छा लगता है !
और अब यह खबर !



रविवार, 17 मार्च 2013

यह भी देश है ?

उसने कहा कि वह कोलकाता से आयी है | एक हप्ते के लिए | आती रहती है कभी-कभी, दो-चार दिनों के लिए | हालाँकि चेहरे-मोहरे, रूप-रंग और कद-काठी से वह नार्थ ईस्ट की ही लग रही थी | यह अरुणाचल के असम से सटे अंतिम छोर की एक पहाड़ी नदी का किनारा है | चारों ओर ऊंची-ऊंची चोटियाँ,आर ओ वाटर से भी साफ़ बहता हुआ पानी और ठंडा इतना कि 'मेन लैंड' से आये सैलानी गरम बीअर की बोतलें नदी में थोड़ी देर रख उसका आनंद उठा रहे थे | दो तीन बसों और कुछ छोटी गाड़ियों में लोग घूमने आये थे | कुछ दुकानें थीं लकड़ी, बांस और फूस की बनी हुयी, निहायत अस्थायी, जिनमें कुछ नमकीन, पान और बीअर शराब आदि मिल सकता था | दूकानदार सिर्फ लड़कियां और ज्यादातर छोटी उम्र की | कुछ स्कूल जाने वाली भी | वह भी उन्हीं में से एक थी |

वह हँस रही थी, गाहकों से 'डील' कर रही थी और सहेलियों से ठिठोली |  पर क्या सचमुच ?



रविवार, 13 जनवरी 2013

उत्प्लावन बल


पक्की लिंक रोड से थोड़ा हटकर प्राइमरी स्कूल के ठीक सामने जंगली बबूलों के जंगल के बीच यह कुआँ है, जहाँ मैं आज फिर बैठा हूँ और जहाँ बैठता रहा बहुत दिन कई बरस | कहते हैं बहुत प्राचीन काल का है यह कुआँ | इसके टूटे खम्भे और उखड़ी फर्श की जगत से लगता भी यही है. हाँ, इसमें पड़ी लोहे की पाइप, जो अब किसी काम नहीं आती सिवाय कुएं में गिरी बाल्टियों को निकालने के लिए कुएं में उतरने के, ज़रूर इस बात की गवाह है कि कभी इससे पानी किसी टंकी में चढ़ाया जाता रहा होगा | शायद बगल की उस पुरानी जर्जर इमारत में जिसे पुरानी कोतवाली कहा जाता है और जिसमें बाद में कभी अस्पताल भी खुल के बंद हो चुका है | जाने कितनी कहानियां हैं जो आज फिर आंखों के सामने तैर-तैर जा रही हैं |

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

कश्मीर से कोकराझार

बेद ब्यास भोई - मूलतः ओडियाभाषी, कुछ दिन लक्षदीप रहे, असम रहे तो असमिया भी सीखी | निजी जीवन में जितने लापरवाह, विचारों में उतने ही प्रखर | उन्होंने एक कविता भेजी थी, शीर्षक नहीं दिया था सो शीर्षक के बिना ही -

मौन क्यूँ हैं मोहब्बतें 
पागल चुप क्यूँ है इश्क 
कश्मीर से कोकराझार 
आज क्या हुआ  धरती पर 
कभी सिंधु, कभी ब्रम्हपुत्र 
क्यूँ खून से लाल हैं 
दिल रोता फिर क्यों होंठ कांपते 
जब तेरे मेरे बीच में तकरार होती है |

शनिवार, 15 सितंबर 2012

रामविलास शर्मा जन्मशती समारोह

यह वर्ष प्रतिष्ठित आलोचक और सभ्यता-समीक्षक डॉ. रामविलास शर्मा का जन्मशताब्दी वर्ष है। डॉ. रामविलास शर्मा ने अपने लेखन में हमेशा वंचितों और हाशिये पर मौजूद जनता के हक़ के लिये आवाज़ बुलन्द की। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त ग़रीबी, भृष्टाचार, शोषण और अन्याय का न सिर्फ़ विरोध किया बल्कि उनकी जड़ों की पड़ताल करने की एक सुसंगत इतिहास-दृष्टि का भी विकास किया। उन्होंने हमें भारत के इतिहास को नई रोशनी में परखने की एक पुख़्ता समझ दी। इतिहास की यह नई समझ हमे अपनी परम्परा, स्मृति, समाज और साहित्य में व्याप्त विद्रोह और असहमति के स्वरों को सतर्क दृष्टि के साथ पहचानने में सक्षम बनाती है।

बुधवार, 12 सितंबर 2012

लड़कियाँ

लड़कियां 
खेल के मैदान में 
पीली तितलियों के पीछे भागती नीली आँखों वाली लड़कियां |
खुद भी उड़ने लग जाती हैं 
तितली बन आसमान में 
और आसमान और भी नीला हो जाता है 

आत्मकथन


गहनों से लदी-फंदी बीबी
लगती है बड़ी ही सुघड़ और

बुधवार, 16 मई 2012

एक कथा कुछ-कुछ लाइव सी


            
‘हाँ-हाँ मैं तिवारी जी से बात करके अभी बताता हूँ’- फेसबुक चैट पर बड़े भाई ने सन्देश भेजा. दरअसल अभी-अभी पत्नी ने फोन पर बताया कि मिसिर बाजार में किसी युवक की हत्या हो गयी . मैंने बड़े भाई से इसलिए पूछ लिया कि उनके एक खास मित्र वहीँ प्राथमिक में अध्यापक हैं और थोड़े राजनैतिक भी, सो मन आशंकाओं से खाली न रह सका . ‘और कहो क्या मौज है, यहाँ तो मछरी चांपी जा रही है’ भाई का अगला सन्देश देख बड़ी कोफ़्त हुई और कुछ झुंझलाहट भी.

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

क्या लिखूं

क्या लिखूं
कई बार होती है बड़ी दुविधा
(असुविधा का सवाल अभी छोड़ देते हैं )
कि क्या लिखूं
कहानियाँ हैं ढेरों लिखने को
पर उनका अंत करना बड़ा ही मुश्किल
कि अक्सर ढेर-ढेर अंत सूझते है
पर लिख नहीं पाता
कविता में कैसे कहूँ
जब
गद्य ही न सध पाया तो
कहना है बहुत बहुत
कैसे कहूँ, क्या लिखूं ?