अब नहीं होते आँगनों में तुलसी के बिरवे
कि नथैया के पिड़ोर से लीप कर
माँ लोटा भर जल से उड़ेल दे पूरा का पूरा समंदर,
गो कि माँ ने नहीं देखा कभी समंदर
पर उसकी पूजा प्रार्थना में हमेशा ही आता है सात समंदर
कि उसे लगता है कि बेटा सात समंदर पार है
तो रहे
और रहे सही सलामत |
अब तो आँगनों में कैक्टस होते हैं
जिनमें कांटे खिलते हैं, फूल नहीं, न ही खुशबू कोई
और माँ अब नहीं होती आँगनों में,
होती है वह ओसारे में, तपते के पास गठरी बनी |
धरती के आखिरी कोने में (अगर कहीं है तो)
जहाँ खूब गहरा नीला आसमान मिलता है
समंदर के नीले गहरे पानी से
वहीं कहीं कोने में
डूबता, सिमटता सूरज भी जानता है
कि अब घरों में आँगन नहीं होते
और माँ भी |
अब शायद घर भी नहीं रहेंगे |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें