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रविवार, 13 जनवरी 2013

उत्प्लावन बल


पक्की लिंक रोड से थोड़ा हटकर प्राइमरी स्कूल के ठीक सामने जंगली बबूलों के जंगल के बीच यह कुआँ है, जहाँ मैं आज फिर बैठा हूँ और जहाँ बैठता रहा बहुत दिन कई बरस | कहते हैं बहुत प्राचीन काल का है यह कुआँ | इसके टूटे खम्भे और उखड़ी फर्श की जगत से लगता भी यही है. हाँ, इसमें पड़ी लोहे की पाइप, जो अब किसी काम नहीं आती सिवाय कुएं में गिरी बाल्टियों को निकालने के लिए कुएं में उतरने के, ज़रूर इस बात की गवाह है कि कभी इससे पानी किसी टंकी में चढ़ाया जाता रहा होगा | शायद बगल की उस पुरानी जर्जर इमारत में जिसे पुरानी कोतवाली कहा जाता है और जिसमें बाद में कभी अस्पताल भी खुल के बंद हो चुका है | जाने कितनी कहानियां हैं जो आज फिर आंखों के सामने तैर-तैर जा रही हैं |

      मुन्ना ‘प्यार के लिए बनी मैं’- अपना सबसे पसंदीदा गीत गुनगुनाते सामने से चले आ रहे हैं | जब वो यूँ मस्ती में गुनगुनाते हुए चलते हैं तो उनके दोनों घुटने एक लय में आपस में भिड़ते हैं और उनका सर मस्ती में हिलता रहता है | बड़े बंशी, मंझले विजय के बाद तीन भाइयों में सबसे छोटे थे मुन्ना| माँ को तो देखा नहीं, हाँ पिता को जरूर देखा था | कई सालों तक बिफ्फइ  शनीचर रानीगंज बाजार से सब्जी का थैला लेकर लौटते पिता की छवि और उस थैले में और कुछ हो न हो मछली ज़रूर होती थी जिसका कारण एक तो ये कि राजा के तालाब से आने के कारण मछली सस्ती मिल जाती थी और दूसरे कारण में एक कहानी कहनी पड़ेगी- जब मुन्ना शायद पैदा भी नहीं हुए थे उससे भी पहले एक बार मुन्ना की माँ ने मुन्ना के पिता से एक विचित्र सी विनती की थी- “सुनिए! ई मछरी ना आप कटवा के न लाया करिये, साबुत ही लाया करिये |” वो सोचती थी कि मछली राजा के तालाब से आती है, क्या पता किसी के पेट से कभी कुछ गहना जेवर ही निकल आये | मुन्ना के होते होते ज़रूर उसकी यह आस टूट ही गयी होगी सो वो शुक ऐतवार बड़े भोरहीं नित्य क्रिया से लौटते वक्त उसी बाज़ार का एक चक्कर लगा के लौटने लगी कि शायद किसी सेठ का कुछ गल्ला भूल से छूट गया हो या किसी बजरिहा का ही रुपया दो रुपया गिरा हो तो उठा ले | अब मुन्ना की माँ तो नहीं रहीं पर मुन्ना के पिता मछली लाते रहे बाज़ार से नियमतः |
मुन्ना गुनगुना रहे हैं प्यार का गीत ‘सजना है मुझे सजना के लिए’ वहीं कुएं की जगत पर बैठ गए मेरे पास, शायद मुझे देखा नहीं या पहचाना नहीं या जानबूझकर बात नहीं करना चाहते होंगें | जब सबसे बड़े बंशी का व्याह हुआ तो मुन्ना बहुत छोये थे| नयी नवेली भाभी उनको बड़ी अच्छी लगती थी, शरमाते थे सो कुछ बतियाने की बजाए भाभी के कमरे की देहरी पे बैठ के टुकुर टुकुर ताका करते थे भाभी को | भाभी का नाम ही कमल नहीं था वो थी भी कमल सी ही | मुन्ना जब इंटर कालेज पहुँचे तो उन दिनों के ज्यादातर नौजवानों की तरह उन्हें भी क्रिकेट और टूर्नामेंट का चस्का लगा | अब वो स्टार इलेवेन के स्पिन बालर बन दूर दूर टूर्नामेंट खलने जाने लगे | जब घर आकर बीमार पिता की खरी खोटी सुनते सुनते जी ऊब जाता तो तपता से उठकर रसोई की तरफ चल देते और भाभी की एक मुस्कान उनकी सब थकान और सब कलेश मिटा देती | दरवाजे पे खड़े खड़े मुन्ना सोचते कि छोटे में भाभी से रोज ही कहते कि हम तुमसे व्याह करेंगे, ............................
इतने साल बीत जाने के बाद भी जब कमल को बच्चा नहीं हुआ तो लोगों की जुबान के चाबुक चलने लगे | गाँव जवांर के लोगों की कड़वी बातें तो सब वो सह लेती थी, उस पर कान ही नहीं देती थी पर जब घर के लोग सहानुभूति की आड़ में ज्ञान देने लगते तब वह जल-भुन उठती | एक बार तो घूंघट को दाँतों के कोने में दबाकर ससुर को जवाब भी दे ही दिया –‘अपने बेटा से काहे नहीं पूछ लेते कि बच्चा काहे नहीं हो रहा है?’
कहते हैं कि आजादी के पहले राजा साहब के पास कई हवाई जहाज हुआ करते थे जिनकी लैंडिंग के लिए परेड ग्राउंड में एक रनवे भी बना हुआ था | उस ग्राउंड में आजकल इलाके का सबसे मशहूर क्रिकेट टूर्नामेंट होता है | तो राजा साहब के जहाजों की मरम्मत के लिए एक अंग्रेज परिवार रहा करता था जो आज़ादी के बाद भी यहीं बस गया | राबर्ट जो जहाजों की मरम्मत का काम करता था आजकल पुरानी मशीनों की मरम्मत का एक छोटा सा कारखाना चलता है और उसका बेटा राबिन एक आटे की चक्की | राबिन चक्की चलाने के अलावा वो सभी काम  भी किया करता था जो उस समय के नौजवानों के प्रिय शगल हुआ करते थे मसलन सिगरेट पीना, क्रिकेट खेलना, काली मंदिर परिसर में होने वाले दंगल में तीतर लड़ाना | पर एक काम जो वो नहीं करता था पर करना खूब चाहता था वो था फिल्मों में एक्टिंग | माने ये कि हीरो बनना उसका मध्यम वर्गीय युवावों के उसी  सपने जैसा था जो कभी पूरा नहीं होता | सो वो बना भी रहता था हिंदी वालीवुड फ़िल्मी नायकों जैसा ही- खूब लंबे संजय दत्त मार्का बाल और रंग बिरंगा पहनावा | मुन्ना की राबिन से मुलाकात और जान पहचान और दोस्ती क्रिकेट टूर्नामेंटों से ही हुयी | पर आजकल मुन्ना को ये दोस्ती बड़ी अखरने लगी थी | राबिन जब भी घर आता तो मुन्ना से कम भाभी से ज्यादा बतियाता था | यहाँ तक तो फिर भी ठीक था पर जब भाभी भी राबिन से कुछ ज्यादा ही बतियाने लगी तब से मुन्ना को राबिन का घर आना अच्छा नहीं लगता | अब मुन्ना की गेंदों ने टूर्नामेंटों में घूमना भी बंद कर दिया कि विरोधी खूब रन बना लें तब देखें कि राबिन अपनी बैटिंग में क्या चमत्कार करता है |
यूँ तो मुन्ना ने कालेज छोड़ने के बाद से ही किताबों से नाता हमेशा के लिए छोड़ दिया था पर आजकल वो पढ़ने लगा था | जब भी वो खाना खाके और थोड़ा भाभी से बतिया के अपनी ओसारे वाली कोठरी की सांकल अंदर से बंद करके बिस्तर पे जाता तो लालटेन की मद्धिम सी रोशनी में कभी मीठी मधुर और कभी सच्ची मुच्ची कहानियां पढता और उसके रंगीन चित्र देखा करता | पढ़ते-पढ़ते वो कहानियों से बाहर निकल आता और धीरे-धीरे उन्हीं कहानियों, शब्दों और चित्रों से घर की छत के खूब ऊपर और बादलों के थोड़ा नीचे एक दुनिया बना लेता  | फिर बड़ी देर तक उसी दुनिया में पड़ा रहता | उस दुनिया में शब्द उसके अपने हो जाते, कहानियां उसकी अपनी हो जातीं और रंगीन तस्वीरें एक दूसरे में यूँ घुल मिल जाती कि पहचान में तो न आतीं पर अजनबी भी न लगतीं | देर रात उस दुनिया से लौटता तो लालटेन बुझा के सो जाता और अक्सर तो लौटता भी नहीं और वहीं सो जाता | सुबह बुझी हुयी लालटेन देख कर जानता कि भाभी सच में उसके कमरे में आयी रही होगी |
कमल जब ब्याह के इस घर में आयी थी तो कोई सपना लेके तो नहीं आयी थी पर फिर भी उसे जाने क्यों लगता है कि इस घर ने उसे बिना सपनों की एक लड़की, लड़की नहीं औरत बना दिया | आयी तो वह भी एक छोटे से गाँव से ही थी पर वहाँ वो आम के बगीचे में सहेलियों के साथ आम चुराती थी, चने का साग खाने जाया करती थी और नदी से मछलियाँ पकड़ने भी | यहाँ आम साग मछली सब था पर बाजार से आने वाले थैले में | और बंशी, उसका बीमार और बेरोजगार पति भी उसे सातों आसमान और चाँद तारे तो दूर की बात एक झूठा सा सपना भी नहीं दे पाया | ऐसा नहीं कि वह पति से प्यार नहीं करती थी पर वह नहीं जानती थी और न ही सोचती थी कि और न ही समझती थी कि पति से प्यार करती है या नहीं | एक बार जब मुन्ना ने यूँ ही पूछ लिया था ‘भाभी, तुम भैया को कितना प्यार करती हो’ तो उसने कोई जवाब नहीं दिया था, बस छत में लगी बल्लियों को यूँ ही अनायास ताकती रह गयी थी | और जब मुन्ना ने अगला सवाल किया कि ‘मुझसे’ तो हँसते हुयी बड़े लाड़ में उसने कह दिया था कि खूब |
कुएं की जगत पर मेरे पास ही बैठे मुन्ना ने अब गाना बादल दिया था | वो गुनगुना रहे थे- प्यार हुआ इकरार हुआ ...| मुन्ना यूँ तो कभी बी.बी.सी. लन्दन की ख़बरें खूब सुना करते थे पर आजकल उनके मर्फी रेडियो की ट्यून वाली सुई विविध भारती पर फिक्स हो गयी थी | बिनाका गीतमाला में अमीन सयानी की बुलंद आवाज़ तो वो पूरे मोहल्ले को सुनाते थे लेकिन भूले बिसरे गीत तो वो खुद ही सुना करते थे | और अब तो उन्होंने शब्दों, कहानियों, चित्रों की ही तरह धुनों, गीत के बोलों और एक हसीन फ़िल्मी नायिका की भी एक दुनिया बना ली थी | उस नायिका का चेहरा भी पहचाना हुआ भले न हो पर अजनबी भी नहीं हुआ करता था |
जब बीमारी से बंशी काल कवलित हुए तो काफी दिनों तक परिवार सदमे में रहा और मुन्ना की भी सारी दुनिया भाभी के सूने और उदास चेहरे पर थोड़ी मुस्कान लाने तक सिमट गयी | कमल जो पहले कभी न तो मंदिर जाती और न ही कभी पूजा-पाठ किया करती आजकल अक्सर शाम को कुएँ और प्राइमरी स्कूल की पगडंडी के बीच से होती हुयी डाक्टर का क्लिनिक और राबर्ट का कारखाना पार करते हुए जंगल में बने प्राचीन काली मंदिर तक जाने लगी थी |
मुन्ना अब न मैच खेलने जाते न दोस्तों के साथ घूमने-फिरने | परेड ग्राउंड के चारों ओर आम, अमरुद, बेर, कैथा के जो जंगल थे वहीं जाकर किसी पेड़ की डाली पे बैठे रहते, अकेले | कभी मन करता तो पास के तालाब में उतर जाते पर अब कमलगट्टा खाने नहीं बल्कि एकाध कमल तोड़ फिर उसी डाल पे जा बैठते | खूब शाम ढलने पर घर लौटते | पत्रिकाएं कहीं बक्सों में बंद हो चुकी थीं और विविध भारती भी अब नहीं बजता था | इन सबके बावजूद वो मुन्ना की अपनी बनाई दुनिया के अजनबी चेहरों से एक मुकम्मल सी तस्वीर बनने लगी थी |
कमल की आगे की जिंदगी के लिए सब बड़े चिंतित थे | कमल के ससुर और बाप ने मिलकर कमल की जिंदगी में खुशियाँ लौटाने का एक खूब परखा हुआ और स्वीकृत फार्मूला निकाल लिया था | तय हुआ कि कमल का ब्याह मंझले विजय से कर दिया जाए | घर की इज्जत घर में ही रह जाए और लड़की की जिंदगी भी न बर्बाद हो | कमल ने जब से ये फैसला सुना है सुबह के वक्त भी मंदिर की ओर जाने लगी है और और काली मैया में उसकी अचानक बढ़ती हुयी श्रद्धा मुन्ना को थोड़ा खटकने भी लगी थी |
मौत उदासी लेकर आती है, दुःख लेकर आती है, रोना-पिटना, कलपना आदि-आदि | पर कई बार धुएं के बादल यूँ आपस में उलझ जाते हैं कि दुःख और उदासी के बीच कहीं कोई तड़प , कोई टीस सी रह जाती है | बंशी के न रहने की रिक्ति का अहसास किसी से बाँध दिए जाने की आशंका के बीच घिरकर बेमानी हो जाता है |
मंदिर की जर्जर घेर दीवारों से सटा दो तीन क़दमों का एक खंडहर जीना था जिस पर बैठने पर सूखी हुयी पत्तियों का ढेर चरमराकर शांत हो जाता | इन्हीं सीढ़ियों पर बैठ कमल ने सपने बुनने सीखे और रह-रह उन सपनों में गाँठ भी लगाती जाती कि न जाने कब कौन सा फंदा ढीला हो जाए और सारे सपने खुलते चले जायें | राबिन उससे अक्सर कहता था कि ‘इसी मंदिर के चक्कर लगा लें एक साथ और फिर उम्र भर लगाता रहूँगा तुम्हारे चक्कर’ | पर कमल हमेशा हँस के बात टाल देती | कमल अपने भविष्य में भी अपना अतीत नहीं चुनना चाहती थी | अपने बुने हुए सपनों के फंदों में भले ही वह गाँठ लगाती चलती हो पर अपनी जिंदगी में फिर एक बंधन वह नहीं चाहती थी | कोई एक सिरा पकड़ कर उसे आजादी के झरोखे से झांकना था, फिर जो हो सो हो, होता रहे | आज राबिन के उसी प्रस्ताव पर कमल शायद असमंजस में थी | यह कोई गुड्डे-गुड़िया का खेल नहीं था पर काश कि होता जो कमल को फिर से वही गुड़िया बना देता जो अपनी मर्जी से कम से कम हँस खेल तो सकती ही |
कमल को लगता है कि जैसे उसने तालाब में डुबकी लगाई हो और किसी ने उसका सर दबा रखा हो | घुटती इच्छाओं और चीखती आत्मा का उत्प्लावन बल उसे सारा दबाव झिटककर खुली हवा में सांस लेने को प्रेरित कर रहा था |
मुन्ना ने शायद फिर गाना बदला हो पर मुझे उसकी आवाज़ बड़ी दूर से आती मालूम पड़ रही है | 

7 टिप्‍पणियां:

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  2. वाह भईया।पढ़ के ऐसा लगा कि फिल्म देख रहा हूँ,सब कुछ आंखों क सामने घटित हो रहा है।इससे अच्छी बात क्या हो सकती है।बहुत अच्छा लिखे हैं।सम्मान हत्या(honour killing) कि झलक आती है लेकिन अलग अर्थों में।दूसरे पैरा मे 17वीं लाइन मे छोये लिखा है।शायद छोटे होगा। -हरेन्द्र नारायण सिंह

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    1. हाँ भाई छोटे ही होगा. पढ़ने का धैर्य रखने व टिप्पणी के लिए आभार |

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  3. बढ़िया संभावना की जमीन है और पर्यवेक्षण नुकीला। पर आगे कब बढ़ेगी? कहानी की मांग है कि आगे बधाई जाये, अभी नहीं तो आगे कभी.... आमीन।

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    1. ज़रूर सर , आगे बढ़ाने के कुछ सूत्र तो सुझाएँ

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  4. प्रिय गीतेश जी, मृत्युंजय जी ने बहुत वाजिब बात कही है। कहानी को आगे बढ़ाने के सूत्र तो उन्हीं वर्णनों और स्थितियों मे लिपटे हैं जिनसे गुज़र कर वह यहाँ तक पहुंची है। आप लगे हाथ इस पर लग जाइए। अगर राजा, तालाब, कुआं, बाजार, जहाज, मछली,मुन्ना की अम्मा सब पर बात करेंगे तब यह उपन्यास भी बन सकती है।
    कहानी के शीर्षक मे तनिक बदलाव की जरूरत है। प्लावन की जगह 'उत्प्लावन' कर दें। (शीर्षक मे भी और कहानी के अंत मे भी।)
    स्नेह सहित,
    आलोक

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  5. आलोक सर बहुत बहुत धन्यवाद आपके सुझावों के लिए, मैं इन सूत्रों के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश करूँगा, शीर्षक मैंने भी एक बार उत्प्लावन सोचा तो था पर अब आपका भी निर्देश मिल गया सो निश्चित ही यही शीर्षक कर देता हूँ |
    सादर
    गीतेश

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