Pages

बुधवार, 12 सितंबर 2012

लड़कियाँ

लड़कियां 
खेल के मैदान में 
पीली तितलियों के पीछे भागती नीली आँखों वाली लड़कियां |
खुद भी उड़ने लग जाती हैं 
तितली बन आसमान में 
और आसमान और भी नीला हो जाता है 

डायस पर पटकती अपनी भिंची हुई मुठ्ठियाँ 
और आँखें हजारों की भीड़ की आँखों में डाले 
'क्या इसी देश का सपना देखा था हमारे शहीदों ने ?'
हवाओं में तैरता है सवाल 
शब्दों को रूप देती लड़कियां |
रंगों में लिपटी पसीना-पसीना
जब हटती हैं अपनी पोटली के साथ
तो धरती पर फैली होती है रंगों की एक दुनिया
बोलते हुए रंग
थिरकते पांव बहती हुई गंगा से फिर पूछते हैं
वही सवाल 'बहती हो क्यों ?'
और सवाल कितना नया और प्रासंगिक हो उठता है |
अपनी सफ़ेद सलवार को
घुटनों तक मोड़े, बाहें चढ़ाए
कबड्डी के मैदान में उतरती हैं लड़कियां
उनके सीने नहीं रहे अब महज फूल कमल के
जिन पर काला भौंरा बैठा हुआ करता था
ये लड़कियां
अपनी जांघ पर ताल ठोंक
दे रही हैं चुनौती
कि आओ बटोरकर अपना सारा पुरुषार्थ
कि अब तुम्हारे नपुंसक दंभ को
नहीं बचा पायेगा
तुम्हारा खुद का रचा हुआ इतिहास
तुम्हारे खुद के बनाये हुए शास्त्र 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें